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गिरीपार क्षेत्र के शिल्ला गांव में हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी महाशू पंचमी बड़े धूमधाम से मनाई जा रही है । शिल्ला गांव में बूठिया महासू निवास करते है जिनका सुंदर मंदिर बनाया गया है ,यहाँ पर दूर दराज क्षेत्र के लोग महासू के दर्शन के लिए आते है । पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी गांव शिल्ला में 2 सितंबर सोमवार की रात्रि सस्कृतिक संध्या को महासू मेले में सस्कृतिक संध्या में चार पहाड़ी कलाकार अपनी सुरीली आवाज से श्रद्धालुओं का मन लुभाएंगे । इस सांस्कृतिक संध्या में शिमला क्षेत्र ठियोग से राज शर्मा , जिला सिरमौर के उपण्डल शिंलाई से कुलदीप धीमान, ओर शिल्ला पँचायत के दो कलाकार अजय चौहान व रघुवीर ठाकुर अपने मंच पर धमाल मचाएंगे । वही चारों पहाड़ी कलाकार अपनी सुरीली आवाज से लोगो का मनोरंजन करेंगे । शिल्ला महासू मेले में दूरदराज क्षेत्र से श्रद्धालु भी आते है यहाँ तक कि हरियाणा, उत्तराखंड से भी लोग महासू देवता के दर्शन के लिए आते है ।
बता दे कि हनोल प्रचीन मंदिर की विशेषता
प्रकृति की गोद जैसे मनोरम और सुरम्य वातावरण में उत्तरकाशी के सीमान्त क्षेत्र में टौंस नदी के तट पर बसा हनोल स्थित महासू देवता मन्दिर कला और संस्कृति की अनमोल धरोहर है। लम्बे रास्ते की उकताहट और दुर्गम रास्ते से हुई थकान, मन्दिर में पहुंचते ही छूमन्तर हो जाती है और एक नई ऊर्जा का संचार होता है। “महासू” देवता एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द “महाशिव” का अपभ्रंश है। चारों महासू भाईयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है। जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है। आज भी महासू देवता के उपासक मन्दिर में न्याय की गुहार और अपनी समस्याओं का समाधान मांगते आसानी से देखे जा सकते हैं।
शिल्ला मंदिर का विवरण
शिल्ला मन्दिर के पुजारी कठी राम शर्मा ,बजीर लाल कल्याण सिंह , भण्डारी खतरी राम, और मन्दिर समिति सदस्य गुमान चौहान, पूर्ण सिंह के अनुसार क्षेत्र के शिल्ला में स्थित मन्दिर मुख्य रूप से बूठिया महासू (बौठा महासू) तथा कफोटा से 3 किलोमीटर दूरी पर शिल्ला नामक स्थान पर स्थित है ।मन्दिर में तीन दिवसीय महासू पंचमी का आयोजन किया जाता है । उन्होंने बताया कि जैसे महासु देवताओं के मुख्य धाम हनोल स्थित मन्दिर में सुबह शाम दोनों समय क्रमश: नौबद बजती है और दिया-बत्ती की जाती है। इसी तरह शिल्ला गांव में बना मंदिर में भी नियम अनुसार नौबद, दिया -बती की जाती है ।पंडित कठी राम शर्म ने बताया कि इस मन्दिर के पुजारी हेतु कठोर नियम होते हैं जिनका पुजारी को पालन करना होता है। पूजनकाल में पुजारी सिर्फ एक समय भोजन करता है। बूठिया महासू के शिल्ला मन्दिर में इस दौरान उन्हे पूजन हेतू सभी नियमों का पूरी श्रद्धा से पालन करना होता है। उपासना स्थलों पर विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं|
मंदिर समिति के सचिव पूर्ण सिंह ने बताया कि हनोल मन्दिर की तर्ज पर शिल्ला में भी तीन कक्षों में बना हुआ है, मन्दिर में प्रवेश करते ही पहला कक्ष (मण्डप) एक आयताकार हाल है जिसमें बैठकर बाजगी पारंपरिक नौबत बजाते हैं। क्योंकि मन्दिर के मुख्य मण्डप में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है अत: महिलायें इसी कक्ष में बैठकर महासू देवता के दर्शन, पूजा-अर्चना के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करती हैं। इस कक्ष की आन्तरिक दीवार पर एक छोटा सा द्वार है जिससे होते हुये केवल पुरुष श्रद्धालु ही मुख्य मण्डप में प्रवेश कर सकते हैं। मुख्य मण्डप एक बड़ा वर्गाकार कमरा है जिसमें बायीं तरफ चारों महासुओं के चारों वीर कफला वीर (बासिक महासू), गुडारु वीर (पबासिक महासू), कैलू वीर (बूठिया महासू) तथा शैडकुडिया वीर (चालदा महासू) के चार छोटे छोटे पौराणिक चिन्ह स्थित हैं। इसी कक्ष में मन्दिर के पुजारी तथा अन्य पश्वा (वे लोग जिन पर महासू देवता अवतरित होकर भक्तों की समस्याओं का समाधान देते हैं) बैठा करते हैं। मन्दिर के इसी कक्ष में गर्भगृह के लिये छोटा सा दरवाजा है जिसके अन्दर केवल पुजारी ही प्रवेश कर सकते हैं। गर्भगृह के अन्दर भगवान शिव के प्रतिरूप महासू देवता की मूर्ति व पालगी स्थापित है। अन्य मन्दिरों से भिन्न तथा विशिष्ट करती है क्योंकि इसके सभी लकड़ी और धातु से निर्मित अलंकृत छतरियों से युक्त हैं।
वही गुमान सिंह चौहान ने बताया कि शिल्ला मन्दिर में प्रसाद के रूप में आटा और गुड़ चढ़ाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में “कढ़ाह” कहते हैं। कढ़ाह के साथ कुछ रूपये की भेटं भी चढ़ाई जाती है। कई श्रद्धालु मन्दिर में बकरा भी अर्पित करते हैं। परन्तु बकरा अर्पित करने के दो रूप हैं पहला ये कि बकरे को अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देकर देवता को अर्पित किया जाता है। अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देने की यह प्रकिया को स्थानीय भाषा में “धूण” कहलाती है जिसके बाद यह माना जाता है कि देवता ने बकरा स्वीकार कर लिया और उसके बाद उसे जीवित छोड़ दिया जाता है। ये बकरे मन्दिर परिसर और शिल्ला गांव में यत्र-तत्र घूमते देखे जा सकते हैं। इन बकरों को “घाण्डुआ” कहते हैं और इनको देवता का जीवित भण्डार माना जाता है। अब देवता चाहे तो बेच दे चाहे जैसे उपयोग कर ले लेकिन कभी भी हथियार से नहीं मारा जायेगा। दूसरे रुप में बकरा देवता को अर्पित कर बलि दिये जाने का है। इसके बारे में कुछ लोग कहते हैं अब मन्दिर में बलिप्रथा खत्म कर दी गई है और कुछ लोग कहते हैं कि देवता को अर्पित कर बकरे की बलि मन्दिर परिसर से बाहर दी जाती है। महासू देवता शिव के प्रतिरूप है और शिव को कहीं भी बलि नहीं दी जाती अत: मन्दिर में बकरे की बलि की प्रथा के बारे में पूछने पर पुजारी जी ने बताया कि “पौराणिक कथाओं में महासू देवता की उत्पत्ति के बाद किरविर दैत्य का वध करते समय कैलू वीर ने किरविर दैत्य को आबद्ध किया और शेडकुडिया वीर ने उसका वध किया था इसलिये महासू देवता ने नियम बनाया कि शेडकुडिया वीर को प्रत्येक पंचमी को रोट और बकरे का गोश्त दिया जायेगा जिसका एक भाग कैलू वीर को भी दिया जायेगा” अत: यह बलिप्रथा/अज अर्पित करने की प्रथा है । ऐसा दर्शय वान ओर शक्ति का प्रतीक मन्दिर को लोग दूर दूर से यात्रा कर दर्शन के लिए आते है ।
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