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हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले के गिरिपार पहाड़ी क्षेत्रों में लोग आज भी हथियार और औजार बनाने के प्राचीन तरीकों को अपनाते है | गिरिपार के लोग मशीनीयुग में भी हस्थकला का प्रयोग करते है | पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी स्थानीय लोहार मशक यानी बकरे के खाल से बनी धौंकनी ( भस्त्रिका) विधि से शोले जगा कर, हथोड़े से लोहा पीट पीट के ओजार और दरांत, तलवार और परशु जैसे हथियार बनाते हैं। सिरमौर में इस तकनीक को आज भी प्रयोग देखा जा सकता है, धौंकनी को मशक या भस्त्रिका भी कहते है |
धौंकनी और इससे आग के शोले भडक़ा कर लोहा गर्म करने की तकनीकी की तसवीरें या तो किताबों में मिलती हैं या सिरमौर जिले के बेहद दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में ही मिलती हैं। सिरमौर जिले के पहाड़ी क्षेत्रो में आज भी इस तकनीक से हथियार बनाये जाते है , स्थानीय लोगो ने इस तकनीक को संजो कर रखा है| यहा के लोगो का कहना है कि बाज़ार में मशीनों से बने औजार भी उपलब्ध है परन्तु , यह औजार इस तकनीक से बने औजारो जितनी बरकत नही दे पाते |
इसलिए यहा के लोग लोहार की मशक वाली भट्टी में लोहता पाकर औजार बनाते हैं | वहा के बाज़ार में यह औजार भी उपलब्ध है, बरसात के दिनों में हर साल लोहार का आरण लगाया जाता है | पहाड़ी क्षेत्रो में इन औजारो का ही अधिक प्रयोग किया जाता है |
यह तकनीक प्राचीन समय से आज तक चली हुई है , स्थानीय लोगो द्व्रारा स्थानीय लोहार से ही औजार बनाये जाते है |सिरमौर जिले के पहाड़ी क्षेत्रो के लोग मशीनी हथियारों से ज्यादा इन हथियारों को प्रयोग करते है | यह मशीनो से बने हथियारों से अधिक मजबूत होते है |
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