News portals-सबकी ख़बर(संघड़ाह)
सिरमौर जनपद की सदियों पुरानी लोक संस्कृति व Traditions को संजोए रखने के लिए मशहूर गिरिपार क्षेत्र में सदियों से चली आ रही चैत्र माह में ढाकुली वादन एवं गायन की परंपरा आज भी कायम है। चौइच अथवा चैत्र माह के पहले दिन संक्रांति से ढाकुली लोक संगीत का यह दौर शुरू हो चुका है। गिरिपार के अंतर्गत आने वाले Subdivision मुख्यालय संगड़ाह में शनिवार को पहले दिन साथ लगते गांव बोरली के पारंपरिक कलाकारों द्वारा ढाकुली की मधुर तान पर सिरमौरी गीत सुनाए गए तथा महीने भर यह चलता रहेगा।
उपमंडल संगड़ाह के गांव बोरली, माइना व भावन से संबंध रखने वाले ढाकुली लोग गायक राजेंद्र सिंह, सूरत सिंह, मांगाराम, सोनिया राम व शुइया राम आदि इन दिनों क्षेत्र के गांव गांव में जाकर रामायण व महाभारत सहित सिरमौर की कईं सदियों पुरानी वीर गाथाओं व विरह गीतों का गायन कर रहे हैं। शनिवार को संगड़ाह के मुख्य बाजार में लगभग सभी दुकानों पर पारंपरिक गाथाओं की प्रस्तुति कर चुके ढाकुली कलाकार राजेंद्र व मांगा राम ने बताया कि, सदियों से उनका परिवार चैत्र माह में ढाकुली गायन व वादन की अपने पुरखों की परंपरा कायम रखे हुए हैं।
विशेष समुदाय से संबंध रखने वाले उक्त कलाकारों की माने तो चैत्र माह में अपने घर पर रहने अथवा Door to door जाकर लोक गाथाएं न सुनाने की सूरत में उन्हें भगवान शिव तथा अपने कुल देवता का पाप अथवा श्राप लगेगा। बांस की छड़ियों से बजने वाले बड़े आकार के विशेष डमरू को डाकुली कहा जाता है। उक्त वाद्य यंत्र के मधुर संगीत की तान पर शिव स्तुति से कार्यक्रम का शुभारंभ किया जाता है। ढाकुली कलाकारों द्वारा शिव अमर कथा, महाभारत व रामायण के पहाड़ी अनुवाद के अलावा बाली-विसावती, जीणिया, गूगा-पीर व होकू आदि सदियों पुरानी सिरमौरी लोकगाथाओं का गायन किया जाता है।
इनकी प्रस्तुतियों पर खुश होकर लोग पहले इन्हें अनाज देते थे, हालांकि पिछले कुछ अरसे से अनाज के जगह पर लोग पैसे देने लगे हैं। पूरे क्षेत्र में आगामी 14 अप्रैल तक उक्त कार्यक्रम गांव गांव में चलेगा। देशभर में एक और जहां पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव के चलते लोक संस्कृति अथवा परंपराओं पर प्रतिकूल असर पड़ा है, वहीं सिरमौर में ढाकुली लोक वाद्य व गायन की परंपरा बरकरार है। किसी भी संबंधित विभाग अथवा संगठन द्वारा उक्त लोक कला के संरक्षण के लिए संतोषजनक कदम न उठाए जाने के तथा युवा पीढ़ी के दर्शकों की इस कला में खास रुचि न होने के चलते कुछ ढाकुली वादक केवल चैत्र माह के दो-चार दिन तक ही अपने आस-पास के गांव में ढाकुली बजाने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं। भगवान शिव व कुलदेवता में अटूट आस्था भी अब तक इस लोक परंपरा कायम होने का एक मुख्य कारण समझा जाता है।
Recent Comments